
बीजेपी सरकार ने केंद्र की सत्ता संभालते ही स्वच्छता को प्राथमिकता में रखा। अखिल भारतीय स्तर पर स्वच्छ भारत अभियान चलाया गया। स्वच्छ शहरों की रैंकिंग बनाई गई ताकि राज्य स्तर भी इस दिशा में काम हो।लेकिन मोदी सरकार ने इन लक्ष्यों को वाकई हासिल किया। सरकार ने अपने 9 साल पूरे कर लिए हैं।इस दौरान स्वच्छता का स्तर शायद बढ़ा भी हो लेकिन सफाईकर्मियों की स्थिति नहीं बदली।
नरेंद्र मोदी की सरकार अमृत महोत्सव मना रही है। देश की जनता के तथाकथित अमृतकाल बताया जा रहा है। लेकिन सफाईकर्मियों की स्थिति देखकर यह राजनीतिक स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं लगता। जिस देश में आजादी के 75 सालों में भी मैला ढोने की प्रथा जीवित है। वहां हम कैसे अमृत और महोत्सव की बात कर सकते हैं।
केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री रामदास आठवले ने लोकसभा में चौंकाने वाली जानकारी दी। उन्होंने बताया कि 2017–2022 में सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए 399 जानें गईं।
मैला प्रथा पर लोकसभा में दी गई अन्य जानकारियां।
30 प्रतिशत जिलों में जारी है मैला ढोने की प्रथा।
766 में से 530 जिले मैला ढोने की प्रथा से हैं मुक्त।
कुल 236 जिलों में आज भी हाथ से मैला उठाने की प्रथा।
देशभर में कुल 11,635 लोग अभी भी मैला ढोते हैं।
2013 में बना कानून फिर भी प्रथा जीवित।
सफाई कर्मचारी बिना सुरक्षा के करते हैं काम।
2013 में भी बना था कानून।
संसद ने 2013 में प्रस्ताव पारित कर मैला उठाने की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया था। इसके अनुसार हाथ से मैला उठाना और असुरक्षित तरीके से सीवर, सेप्टिक टैंक के अंदर जाना प्रतिबंधित है। सेप्टिक टैंक की सफाई में विशेष सूट, आक्सीजन सिलेंडर, सेफ्टी बेल्ट आदि सुरक्षा उपकरण आवश्यक हैं।
अमानवीय और खतरनाक है मैला ढोने की प्रथा।
उचित रोजगार के अभाव में सफाईकर्मी जोखिम उठाने को बाध्य होते हैं। इन टैंकों से निकलने वाले अमोनिया, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड आदि जहरीली गैसों से उनकी मौत हो जाती है। इस तरह की घटनाएं आए दिन होती हैं। ये घटनाएं स्वच्छ भारत अभियान और बीजेपी सरकार पर सवाल खड़े करती हैं। वहीं मैला ढोने की प्रथा का बना रहना अमानवीय और शर्मनाक है।
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