
DESK: जाति आधारित जनगणना के पक्ष और विपक्ष में तर्क
पक्ष में तर्क:
सामाजिक समानता कार्यक्रमों के प्रबंधन में सहायक।
भारत के सामाजिक समानता कार्यक्रम डेटा के बिना सफल नहीं हो सकते हैं और जाति जनगणना इसे ठीक करने में मदद करेगी।
डेटा की कमी के कारण ओबीसी की आबादी, ओबीसी के भीतर के समूह के लिये कोई उचित अनुमान उपलब्ध नहीं है।
मंडल आयोग ने अनुमान लगाया कि ओबीसी आबादी 5% है, जबकि कुछ अन्य ने ओबीसी आबादी के 36 से 65% तक होने का अनुमान लगाया।
जाति आधारित जनगणना के माध्यम से ‘OBC आबादी के आकार के बारे में जानकारी के अलावा OBC की आर्थिक स्थिति (घर के प्रकार, संपत्ति, व्यवसाय) के बारे में नीति संबंधी प्रासंगिक जानकारी, जनसांख्यिकीय जानकारी (लिंग अनुपात, मृत्यु दर, जीवन प्रत्याशा), शैक्षिक डेटा (पुरुष और महिला साक्षरता, स्कूल जाने वाली आबादी का अनुपात, संख्या) प्राप्त होगा।
यह भी पढ़े : खुशहाली का बजट: जानिए नीतीश सरकार के इस साल के बजट के मुख्य आयाम…
विपक्ष में तर्क:
जाति आधारित जनगणना के दुष्प्रभाव: जाति में एक भावनात्मक तत्त्व निहित होता है और इस प्रकार जाति आधारित जनगणना के राजनीतिक व सामाजिक दुष्प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं।
ऐसी आशंकाएँ प्रकट होती रही हैं कि जाति संबंधित गणना से उनकी पहचान की सुदृढ़ता या कठोरता को मदद मिल सकती है।
इन दुष्प्रभावों के कारण ही सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना, 2011 के लगभग एक दशक बाद भी इसके आँकड़े के बड़े अंश अप्रकाशित रहे हैं या ये केवल अंशों में ही जारी किये गए हैं।
जाति संदर्भ-विशिष्ट होती है: जाति कभी भी भारत में वर्ग या वंचना का छद्म रूप नहीं रही; यह एक विशिष्ट प्रकार के अंतर्निहित भेदभाव का गठन करती है जो प्रायः वर्ग के भी पार चला जाता है। उदाहरण के लिये:
दलित उपनाम वाले लोगों को नौकरी हेतु साक्षात्कार के लिये बुलाए जाने की संभावना कम होती है, भले ही उनकी योग्यता उच्च जाति के उम्मीदवार से बेहतर हो।
ज़मींदारों द्वारा उन्हें पट्टेदारों के रूप में स्वीकार किये जाने की संभावना भी कम होती है। एक पढ़े-लिखे, संपन्न दलित व्यक्ति से विवाह अभी भी उच्च जाति की महिलाओं के परिवारों में हिंसक प्रतिशोध को जन्म देता है।