
DESK : उपेंद्र कुशवाहा जिस कोइरी समाज से आते हैं, वह बिहार में 3 फीसदी है। इन्हीं 3 फीसदी के दम पर उपेंद्र कुशवाहा बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन बचाए हुए हैं। उपेंद्र कुशवाहा जदयू छोड़कर जाने से महागठबंधन पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। क्योंकि, उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति को नीतीश कुमार ने ही संजीवनी दी है। कुशवाहा का हाथ नीतीश ने तब थामा जब कुशवाहा के पास कुछ भी नहीं था। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में उनकी पार्टी से एक भी उम्मीदवार नहीं जीता, साल 2019 के चुनाव में वो खुद हार गए।जब उनके पास कुछ नहीं था, ऐसे समय में नीतीश ने उन्हें जदयू के संसदीय बोर्ड का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया और एमएलसी का पद दिया।

अगर उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति को पीछे मुड़कर देखेंगे तो पाएंगे की उनकी राजनीति इधर-उधर जाने में ही रही है। साल 2014 में जब नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होने का फैसला किया तो उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी नई पार्टी (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) बनाकर एनडीए में शामिल हो गए।उन्हें इसका फायदा भी मिला।
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साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें तीन सीटें मिलीं और कुशवाहा को मोदी सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें एनडीए से नाता तोड़ लिया। 2019 के चुनाव में उनकी पार्टी रालोसपा को 2.56 फीसदी वोट मिला। जबकि, साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में 1.77 फीसदी ही वोट मिला। यानी बिहार में ग्राफ गिरता गया।ऐसे में ये देखना होगा की अगर वो बीजेपी में शामिल होते हैं तो वो बीजेपी को कितना फायदा पहुंचा सकते हैं।
हालांकि, जानकारों का मानना है कि बीजेपी उपेंद्र कुशवाहा को बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ तुरुप का इक्का के रूप में इस्तेमाल कर सकती है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि अब बिहार में मंडल कमिशन वाली 1990 के दशक वाली जातीय राजनीति नहीं होती है, फिर भी अगर वो बीजेपी से जुड़ते हैं तो चुनावों के समय बीजेपी के पास दिखाने के लिए एक नेता होगा और वो जनता को संदेश दे सकती है कि हमारे पास भी लोग आ रहे हैं।