1968 में बिहार की सत्ता की कमान संभालने वाले भोला पासवान देश में पहले दलित मुख्यमंत्री थे। भोला बाबु ने एक बार नहीं बल्कि तीन बार मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता की बागडोर संभाली थी। कांशीराम की सियासत तब शुरू भी नहीं हुई थी। दलित राजनीती का उदय बिहार से ही हुआ लेकिन बिहार के अलावा अभी दुसरे राज्य ज्यादा दलित राजनीती हो रही है। बिहार ने ही दलित राजनीति को एक नया मोड़ दिया था, इसके बाद भी बिहार में दलित राजनीति उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की तरह अपनी जड़ें नहीं जमा सकी।

बिहार के दलितों में जातीय चेतना
बिहार में दलित राजनीति के विकास में बाधक बनने वाला तीसरा और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि 90 के दशक और उसके बाद अगड़े और पिछड़े वर्ग की देखा-देखी बिहार के दलितों में भी जातीय चेतना हावी हो गई। इससे एक बड़े दलित आंदोलन का अवसर दलितों के हाथ से निकल गया। अगड़े वर्गों में जातीय चेतना का विकास तब हुआ, जब वे समाज के बाकी समुदायों से आगे निकल गए। पिछड़े वर्गों की कुछ जातियों में जातीय चेतना तब विकसित हुई, जब इनमें से कुछ जातियों ने सत्ता का स्वाद चख लिया। लेकिन दलितों के बीच अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारे बिना ही जातीय भावनाओं ने अपना बसेरा कायम कर लिया।
राज्य सत्ता में दलितों का शासन
साल 1967 में भोला पासवान पहली बार कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। ये वो दौर था जब पार्टियों की आपसी टूट-फूट और कलह के चलते बिहार में तीन गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी गंवा चुके थे। कांग्रेस ने दलित नेता के तौर पर पासवान को आगे किया और 22 मार्च 1968 को वो मुख्यमंत्री बने, लेकिन गठबंधन की ये सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चली और तीन महीने बाद ही भोला पासवान शास्त्री की भी कुर्सी चली गई थी, लेकिन बिहार की राजनीति में वो अपनी जगह बना चुके थे।
हालांकि इसके बाद भोला पासवान दो बार और सीएम बने। दूसरी बार 13 दिन के सीएम और तीसरी बार में उन्होंने 222 दिन के मुख्यमंत्री के तौर पर बिहार में शासन चलाया। इतना ही नहीं, वो चार बार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहे। राज्यसभा सांसद चुने जाने के बाद भोला पासवान 1973 इंदिरा गांधी सरकार में केंद्रीय मंत्री बने और कुछ समय बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। 9 सितंबर 1984 को बिहार के इस दिग्गज नेता का निधन हो गया। भोला पासवान शास्त्री आपनी सादगी भरे जीवन के लिए जाने जाते थे।
बिहार में दलित के दुसरे मुख्यमंत्री
भोला पासवान के बाद बिहार को जनता दल के शासन के दौर में राम सुंदर दास के तौर पर दलित मुख्यमंत्री मिले। रामसुंदर दास ने 1979 से 1980 तक एक साल सत्ता की कमान संभाली, लेकिन फिर उनके बाद कोई दलित मुख्यमंत्री बिहार को नहीं मिल सका। सामाजिक न्याय के नाम पर ओबीसी नेताओं के हाथ में ही सत्ता रही है। कभी लालू यादव ने राज किया तो मौजूदा समय में नीतीश कुमार सत्ता पर काबिज हैं। बिहार में आगामी चुनाव को देखते हुए इस समय आरजेडी और जेडीयू दलित मतों को साधने में जुटे हैं।
पहले महादलित मुख्यमंत्री बने मांझी
बिहार के मुसहर जाति से आने वाले जीतनराम मांझी ने 80 के दशक में राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी। वे कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू की राज्य सरकारों में मंत्री रह चुके हैं। छह बार विधायक रहे मांझी पहली बार कांग्रेस की चंद्रशेखर सिंह सरकार में 1980 में मंत्री बने थे। उसके बाद बिंदेश्वरी दुबे की सरकार में मंत्री रहे। फिर उन्होंने जदयू का दामन धाम लिया। इसके बाद साल 2014 में नीतीश कुमार ने उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर पूरे देश को चौंका दिया था। हालांकि राजनीतिक कारणों से जीतनराम मांझी 9 महीने तक ही मुख्यमंत्री रह पाए।